Sunday 23 February 2014

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प्रिय वर मानिक जी , आपका मोब 0 न0 मिल गया ।मै " कविता  का वर्तमान " पर ही अपनी तरह से अपनी बात कहूँगा । आप से जुड़ कर मुझे भी बेहद प्रसन्नता है । अपनी धरती से जुड़े निश्छल  लोगों को मै खोजता रहा हूँ । वे ही मेरे मित्र बन पाते हैं । आज ऐसे लोग विरल होते जा रहे हैं । कविता और जीवन दौनों से लोक धर्मिता विलुप्त होती जा रही है । भारतीय   साहित्य सदा लोकोन्मुख रहा है । औपनिवेशिक आधुनिकता ने हमे अपनी जड़ों और जातीय चेतना से निर्मूल किया है । मैंने कृतिओर से बार बार इस बात को उठाया है । कोई भी साहित्य अपनी धरती , अपने लोग , अपनी जातीयता और अपनी महान साहित्यक परंपरा को आत्मसात किए बिना बड़ा नही हो सकता । आज इसी का संघर्ष है । हम लोगों को यह बताएं कि बिना लोक को समग्रता में समझे हम अपने समय और समाज को नही जान सकते । आप अगर चाहें तो मै सौंदर्य शास्त्र पर भी आलेख दे सकता हूँ । इधर भी हिन्दी में  ध्यान नही दिया गया  है । अब आप से संवाद बना रहेगा । 

सस्नेह, 
विजेंद्र , 
आपका ।