नमस्कार विजेंद्र जी
हम सोच रहे हैं कि 'अपनी माटी' के इस मार्च वाले मासिक अंक में हम एक परिचर्चा प्रकाशित करें।जिससे हम सार्थक निष्कर्ष सरीखा कुछ पाठकों को दे सके.इस बार की परिचर्चा का विषय रखा है 'इक्कीसवीं सदी में कविता की दिशा'
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परिचर्चा पर डॉ राजेन्द्र सिंघवी का आधार वक्तव्य:साहित्य की सबसे महीन विधा ‘कविता’ है । कविता का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ माना जाता है, इसी कारण कविता को मनुष्यता की मातृभाषा कहा गया है । कविता की आलोचना मनुष्यता के घेरे में ही संभव है, किंतु उसकी मौलिकता समय के साथ निरूपित होती है । हिंदी कविता की विगत शताब्दी में गतिशील यात्रा की चर्चा करते हुए डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं, “राष्ट्रीयता से वैचारिकता, भक्ति से अध्यात्म, ब्रज से खड़ी बोली और सहजता से स्वचेतनता के ये बहुस्तरीय रूपान्तरण मिलकर कविता के समूचे स्वरूप का ही कायाकल्प करते हैं ।
बीसवीं सदी का अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी का प्रथम दशक सामयिक यथार्थ की दृष्टि से नितान्त भिन्न है । वर्तमान समय भूमंडलीकरण का है, जिसके साथ साम्राज्यवादी शक्तियों का मानवीय जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश हो गया है । ऐसी स्थिति में इस समय की कविता का यथार्थ स्पष्ट होना आवश्यक है । स्वप्निल श्रीवास्तव के अनुसार, “खासकर यदि हम यथार्थ की बात करें तो आज का यथार्थ मारक और अविश्वसनीय है । वह फैंटेसी के आगे का यथार्थ है । आज के यथार्थ का चेहरा रक्त रंजित और अमानवीय है । यथार्थ हमारे सामने विस्मयकारी दृश्य प्रस्तुत करता है, जो कल्पनातीत है ।
विस्मयकारी यथार्थ को प्रभावित करने वाले जो कारक पहले दशक में उपस्थित होते हैं, वे हैं- वैश्वीकरण, मुक्त बाजारवाद, विकृत उपभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यों का विघटन, संस्कृतियों का संघर्ष, पूंजीवाद का प्रभुत्व एवं भ्रष्ट आचरण आदि ।3 ये कारक तो वैश्विक हैं, किंतु भारत का आम आदमी इनकी फाँस में आ गया है । दूसरी ओर भारतीय सांस्कृतिक आदर्शों का पतन, जातीय व धार्मिक उन्माद, साहित्य जगत में वैचारिक अतिवाद के साथ वामपंथी-दक्षिणपंथी खेमे में बँटकर कवि कर्म के उद्देश्यों से भटकाव का साक्षी भी यह दशक है । सुखद पहलू यह है कि इस बीच स्त्री व दलित को कविता के केन्द्र में रखा गया है, जो वैचारिक स्तर पर संघर्ष करते हुए अपना मुकाम तय करते हैं ।
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अगले महीने की पंद्रह तारीख को प्रकाशित होने वाले मार्च अंक के लिए दस मार्च तक आपकी टिप्पणी हमें भेजेंगे तो सुविधा रहेगी।टिप्पणी का आकार असीमित है फिर भी कम से कम एक पृष्ठ ज़रूर हों.आशा आपका सहयोग यहाँ भी मिलेगा।
सादर माणिक
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प्रियवर मानिक जी ,
आपका फो0 न0 । दूसरे , विषय मुझे अमूर्त लग रहा है । बेहतर हो हम , ‘ कविता में समकाल ’ की बात करें । आज समकालीनता को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में समझना जरूरी है । नई कविता से पीछा छुड़ाने केलिए हमने ‘समकालीन कविता’ का मुहावरा चुना था । अब उसका भी अर्थ विपर्यय हो गया है । इस विषय को लेकर विचार विमर्श बहुत जरूरी है । वर्तमान हमें कोई दिशा संकेत नहीं करता । आप इस पर सोचें । यदि नहीं बदलें तो मैं वर्तमान को ही समकालीन कह कर व्याख्यायित करने के लिए विमर्श करना चाहूँगा । खैर आपसे फोन पर बात करके कुछ बातें साफ होंगी । कल हम लोग उपर्युक्त पते वाले मकान में चले जाएँगे । अतः कुछ दिनों को पदजमतदमज सुविधा बाधित होगी । मैं यहाँ मार्च मध्य तक हूँ । उसके बाद जयपुर चला जाउँगा । आप से बात चीत करके ही आलेख प्रारम्भ करूँगा ।प्रसन्न होंगे ।
सस्नेह , आपका विजेंन्द्र